wo sham.....

कल कुछ ऐसा लग रहा था जैसे कभी हुआ ही न हो,

पर कौन जाने क्यों मुझे आज भी याद है

दादी के घर की सीढ़ियों पर बैठा वो दिन,

(जहां गर्मियों का आसमान था और सिर पर झुकी हुई विलो की शाखाएं थीं)।

तुमने मुझसे कहा था, बटरकप्स की गर्दनें मरोड़ते हुए,

कि एक दिन हम ऐसे मिलेंगे जैसे बिल्कुल अजनबी हों,

जैसे मोहब्बत कड़वाहट में बदल जाए और बेपरवाह हो जाए।

आज जब मैं इन दीवारों को देखता हूं,

जो न तुम्हारे चेहरे से मिलती हैं,

न उस शाम से, और न ही तुम्हारी उन भविष्यवाणियों से।

(सिर्फ एक दुनिया, जहां मायने और बेमानी के बीच की दूरी मुझे बेचैन करती है)।

मुझे हंसी आती है अपने दिल की कायरता पर,

जो खुद को इस झूठे दिलासे में भी नहीं बहला सकता,

कि शायद उम्मीद में भी सुकून मिल जाए।



vvuwrites

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